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मदनलाल जी निहायत चतुर…चालाक व लालची किस्म के इंसान थे। वो अगर किसी का पैसा ले लिए तो वापस उनसे पाना…टेढ़ी खीर थी। क्योंकि उनकी सोच बड़ी अजीब थी… उनकी जहन में एक कहावत बैठी हुई थी…जिस पर वो अक्सर अमल करते थे…वो ये कि ‘थारो माल म्हारों और म्हारों माल तो म्हारों हैं ही…’बस इसी के अनुरूप चलते भी थे अर्थात अपना एक पैसा न छोड़ते। चाहे दूसरे का माल…पूरा का पूरा हजम कर लेते और डकार भी न लेते। दरअसल वो सूद का काम करते थे इसलिए लोग न चाहते हुए भी मदनलाल जी से पैसे उधार लेने आते …नहीं तो जाते किधर.. क्योंकि इस गाँव में केवल मदनलाल जी ही सूद पर पैसा दिया करते थे। मदनलाल जी लाला जो ठहरे…कोई उनका एक पैसा भी मार कर बैठ नहीं सकता था क्योंकि उनमें खासियत थी कि वो अपनी चालाकी… होशियारी…कुटिलता… विद्यावान…बुद्धिमान… चतुराई …सभी माप दंड अपना लेते…पर क्या मजाल वो एक पैसा छोड़ देते। इन्हीं गुणों के कारण मदनलाल जी अपने गाँव में अक्सर चर्चा मे शामिल रहते। चर्चा भी ऐसी जैसे प्रवचन हो रहा हो। परन्तु उनकी सेहत पर कोई असर न पड़ता।
मदनलाल जी अक्सर उन लोगों को उधार देते जो भोली भाली विधवा महिलाएँ होती या गरीब बेसहारा होती ताकि अपने मन माफिक ब्याज सहित बिना झंझट के वसूली कर सके और अगर कोई ज्यादा ब्याज लेने पर बोलता तो भी उनका दो टूक जवाब होता…”किसने कहा है मुझसे उधारी लेने को…” अब इसका भी कोई जवाब था।
बारिश का महीना था। रोज बारिश… रोज बारिश… किन्तु एक दिन तो हद हो गई… चार दिनों से लगातार घनघोर बारिश… रुकने का नाम नहीं…
जिनके घर एक तल्ले के थे वे सभी पानी में समा चुके थे। बस ऐसी हालातों में घर के लोग अपने आप को बोरियाँ बिस्तर के साथ दूसरे के घरों की छत पर या अपने घर की छत पर शरण ले चुके थे लेकिन चोर उचक्कों के कारण अपनी जीवन भर की आय मदनलाल जी को देने लगे थे क्योंकि उनका तो चार मंजिला मकान था उन्हें किस बात का डर…लोग उन्हें अपनी जमा पूंजी देने लगे। यही सोचकर कि मदनलाल जी इतने लोगों का थोड़े ही पैसा खा जाएंगे… बात भी सही थी… इतने लोगों का पैसा एक साथ हजम करना कोई आसान बात थोड़े ही थी यही सोच छोटे-छोटे मकान व झोंपड़ियों में रहने वाले भी उन्हें अपनी जीवन भर की कमाई देने लगे। इधर मदनलाल जी बड़े खुश… वो तो चाहते थे कि कभी बारिश न रुके किन्तु क्या कभी प्रकृति की आपदा भी किसी इंसान के सोच के अनुसार चलती है…नहीं…इसलिए एक दिन बारिश भी रुक गई और कुछ दिनों में ही सब सामान्य हो गया। थोड़े- थोड़े सभी लोग मदनलाल जी से पैसे लेने लगे… बेचारे मदनलाल जी न चाहते हुए भी सभी के पैसे धीरे-धीरे लौटा दिए। बस रह गया था तो एक बेसहारा… मजबूर विधवा औरत चंदा का पैसा… जिसका आगे-पीछे कोई न था। उसका सहारा था तो केवल वो पैसा…जो मदनलाल जी को एक लाख रुपये के रूप में दी गई थी। उसने सोच रखा था कि इन्हीं पैसों से किसी तरह जीवन निर्वाह कर लेगी।
एक दिन वो भी मदनलाल जी से अपने पैसे मांगने गई। मदनलाल के मन में बेईमानी आ चुकी थी इसलिए उन्होंने साफ देने से इनकार कर दिया ये कहते हुए कि ‘तुमको तो पहले ही मैं लौटा चुका हूँ ‘
अब होना क्या था… बवाल मचा… पंचायत बैठी… कई गाँव के लोग इकट्ठे हुए। मदनलाल ने कहना शुरू किया-
“आदरणीय भाइयों… मैं मदनलाल… क्या मैं आपको चोर लगता हूँ… सभी गाँववालो से पूछ सकते हैं कि मैंने ईमानदारी से सभी के पैसे लौटाए है या नहीं…उसके बाद आप लोग जो भी मुझे सजा देंगे वो मेरे सर आँखों पर…”
सभी गाँव के लोग एक साथ बोल पड़े-
“हाँ भाई हाँ… आपने तो चुन-चुन कर सभी के पैसे लौटाए हैं… फिर भला आप इस गरीब… मजबूर…बेसहारा का पैसा कैसे रख सकते हैं… आप तो ऐसा कर ही नहीं सकते…”
सभी गाँव वालों की एक आवाज सुन पंचायत ने यह कहकर सभा समाप्त कर दी कि ‘चंदा ने पैसा लेकर कहीं इधर उधर रखकर भूल गई है जिसे वो याद करें इसमें मदनलाल का कोई दोष नहीं ‘ अतः पंचों ने मदनलाल को छोड़ दिया। पंचायत उठ गई। चंदा आह भरकर चीख उठी-
“मदनलाल इस अभागिन का पैसा मारकर तुम सुखी न रहोगे… तेरा कुल समाप्त हो जाएगा… तू तड़प-तड़प कर मरेगा…जा ऊपर वाला तेरा इंसाफ करेगा…मदनलाल…ऊपर वाले की लाठी में आवाज नहीं होती…लेकिन जब पड़ती है तो बहुत जोर की पड़ती है…”।
उस दिन के बाद से चंदा अक्सर दुःखी… बहुत दुःखी रहने लगी। अब उसे दिन रात रुपये की रट लगी रहती… उठते- बैठते… सोते-जागते केवल उसका एक काम रह गया था… मदनलाल को भला-बुरा कहना।
धीरे-धीरे चंदा पागल हो गई। पहले तो वो मदनलाल को मन ही मन कोसती थी लेकिन अब वो पागल होने के साथ ही छाती पीट-पीट कर रुदन करने लगी।
ऐसे रुदन करती जैसे उसका पूरा परिवार किसी दुर्घटना में खतम हो गया हो… लोग सुनकर काँप व सिहर जाते। उसका रुदन सुन लोग वहां से उसे भगाने के लिए तरह- तरह के उपाय करते… कोई लाठी डंडे का डर दिखा कर… तो कोई पत्थर मारकर…तो कोई गर्म पानी फेंक कर… ऐसे में वो लहूलुहान हो जाती… गर्म पानी से झुलस जाती… छाले पड़ जाते किन्तु रुदन करते हुए मदनलाल को श्राप देना न भूलती। ऐसे में वो धीरे-धीरे गाँव छोड़ श्मशानों या खंडहरों में रहने लगी। अब उसे गाँव वालों की तरफ से एक नया नाम मिल गया था ‘पगली ‘।
ज्यों-ज्यों समय बीतता गया त्यों-त्यों चंदा अपने पागलपन की चरम सीमा पर पहुंचती जा रही थी… लट दार बाल… पागलों जैसा चेहरा… धूल से सना नंगा शरीर…इस हालत में पहुंचाने वाला कौन…? ये पूरा गाँव जानता था।
मदनलाल थे तो जिगर वाले लेकिन कभी कभार वो भी चंदा के रुदन को सुन…अपने कर्मों को याद कर…अपने आप को कोसने लगते और रात- रात उठ कर घुमने लगते। प्रायः रात के सन्नाटे में चंदा रोती बिलखती रुदन करती तो कभी भयानक आवाज के साथ ठहाका लगा कर हँसने लगती।
ठहाका भी ऐसा कि गाँव के लोग डर के मारे सांस रोक कर अपने-अपने चादरों में दुबक जाते और बच्चों का हाल…पूछिए मत… बच्चे तो बिस्तर पर ही पेशाब कर देते जैसे कोई अनचाही आपत्ति आने वाली हो।
मदनलाल के मन में भी कभी-कभार ईश्वर के प्रति डर बैठ जाता सोचता पता नहीं उसके साथ ईश्वर क्या करेंगे… कहीं पगली की बात सच तो नहीं हो जाएगी… कहीं मेरे कुल का नाश तो नहीं हो जाएगा…. किन्तु इन सभी सवालों का जवाब आने वाले वक्त्त के पास था…जो किसी ने न देखा था। लेकिन सबका वक़्त आता जरूर है… मदनलाल का भी आया…।
एक रात अचानक आधी रात को पूरे गाँव में महामारी फैल गई।
जिधर देखो उधर ही तबाही का मंजर था… उल्टी, दस्त से सभी परेशान थे इसलिए गाँव के लोग अपने-अपने परिजनों को लेकर सरकारी अस्पताल व प्राइवेट अस्पतालों में भाग रहे थे… कुछ घण्टों में ही कई लोग इस संसार को छोड़कर जा चुके थे जिनमें से मदनलाल के चार बेटों में से दो बेटे व पत्नी भी शामिल थे।
उधर शमशान घाट पर पगली जोर-जोर से ठहाके लगाते हुए कही जा रही थी-
“देख मदनलाल… ऊपर वाले का इंसाफ देख… वो किसी को भी नहीं छोड़ता…जा…अगर अपने दो बेटों को भी बचा सकता है तो बचा ले…तेरे कुल का नाश तो होना ही है…”- फिर पगली नाचने-झूमने लगी।
मदनलाल पगली की बात सुनकर नीचे से ऊपर तक सिहर गए। तभी मदनलाल रोते बिलखते पगली के पैरो पर गिर पड़े और कहने लगे-
“चंदा मुझे माफ कर दे… मैं तेरा दोषी हूँ… तु मेरा सब कुछ ले ले, लेकिन अपनी हाय वापस ले ले… अगर तु कहेगी तो गाँव वालों के सामने मैं अपना गुनाह कबूल कर लूँगा किन्तु मेरे कुल को बचा ले…”
लेकिन पूर्ववत की भाती चंदा बड़बड़ाये जा रही थी-
“मदनलाल मेरी छाती को ठंडक उसी दिन मिलेगी…जिस दिन तेरा कुल का नाश होगा….”चंदा पर मानो मदनलाल के गिड़गिड़ाने का कोई असर ही न पड़ा हो। तभी चंदा नाचते श्राप देते एक पत्थर से टकरा गई… माथे व हाथ पर चोट लगने के कारण खून की धारा बह निकली। खून की परवाह किये बगैर वापस पत्थर को मारते हुए…नाचते …गाते…श्रापते… मदनलाल की आँखों से ओझल हो गई। किन्तु पगली के ठहाकों की गूँज मदनलाल की आत्मा को दहला देने वाली गूंज थी।
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