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झोंपड़ी के अन्दर से बहुत कराहने की आवाजें आ रही थी। कभी-कभी तेज दर्द से चीखने भी लगती थी। जैसे उसके प्राण निकल रहे हो, किन्तु आस-पास उसे पूछने वाला….उसे सान्त्वना देने वाला कोई न था। झोंपड़ी के बाहर चौखट पर ही फुलिया का पति शराब पी रहा था तभी-
“अरे बेवड़े….पीना छोड़ …जा अपनी पत्नी को देख ले। बच्चा किसी भी समय हो सकता है। ऐसा न हो…. वो बच्चे के साथ ही मर जाए और तु यही बैठा पीता रह जाए”- पड़ोसी ने कहा।
असल में पूरा गाँव फुलिया के पति को बेवड़ा ही कहकर बुलाते थे, क्योंकि वो पीता बहुत था। दारू के आगे उसके लिए अमृत भी बेकार था या यूँ कह ले कि पीने में पूरे गाँव भर में सबसे आगे था। उसकी कमजोरी थी तो केवल दारू। पीने से जो समय बचता उसमें वो मेहनत मजदूरी कर लेता फिर उस मेहनत मजदूरी से जो हाथ में पैसे आते उससे वो दारू पीने में उड़ा देता। नशे की हालत में जब बेवड़ा पड़ा रहता तब जाकर फुलिया उसकी जेब से कुछ पैसे निकल पाती। जिससे उसकी गृहस्थी इतना चल पाती, कि एक समय ही चार रोटी हो पाती जिसमें एक खुद खाती और तीन बेवड़े को दे देती परन्तु बेवड़ा कभी अपनी पत्नी से ये न पूछता कि ये रोटी कैसे बनाई? पैसे कहाँ से आये? उसे बस खाने से मतलब होता।
जब एक पड़ोसन से फुलिया की चीख सुनकर बर्दाश्त न हुआ तो-
“कम से कम चौखट से ही हट जा, हमलोग तेरी पत्नी को देख लेंगे”- एक पड़ोसन ने कहा।
“चल हट… आई बड़ी देखने वाली। खबरदार कोई भी उसके पास गया तो, साली…तुम लोगों को देख कर और चीखने लग जाएगी वैसे ही मेरा दिमाग खराब कर रखी है सारी रात से”- बेवड़े ने पड़ोसन को लतियाते हुए।
“अरे बेवड़े….तुझे शर्म नहीं आती, जिसने अपनी सारी जिन्दगी तेरे नाम कर दी। कम से कम ऐसे समय तु उसको देख ले। तेरी उसको जरूरत है। तेरे में मानवता है कि नहीं”- पड़ोसन खरी खोटी सुनाते हुए।
“अबे चुप….भाग यहाँ से…. आई बड़ी मेरी पत्नी की हिमायती बनने वाली। मेरी पत्नी, मेरी मर्जी। मेरा जब जी चाहेगा तब उसके पास जाऊँगा। तुझे क्या मतलब। साली…अभी तक तो उसने मुझे खाना नहीं दिया और तु कहती है कि मैं उसे पूछने जाऊँ, हूँ…..”- बेवड़ा दारू की आखरी बूंद चाटता हुआ।
अभी भी अन्दर से चीखें बराबर आ रही थी। फुलिया की चीखें सुनकर बेवड़ा दारू के नशे में बड़बड़ाया जा रहा था-
“करमजली…कुतिया…कमीनी….चुप नहीं हो सकती। इतना शोर मचा रखी है शान्ति से पीने भी नहीं देती”- बेवड़ा गाली देते हुए वही पसर जाता है।
बेवड़े के शब्द सुनकर पड़ोसन मुँह बिचकाते हुए वहाँ से चली जाती है।
“अरे….शान्ति की माँ,देख रही है… कैसे बेचारी चीख रही है, पर बेवड़े को तो परवाह ही नहीं है। साले के दिल में रहम नाम की चीज नहीं। मेरा तो बहुत मन कर रहा था कि उनको देख लूँ पर बेवड़ा है कि अन्दर ही नहीं जाने देता। साला मारकर ही रहेगा उसको”- एक पड़ोसन ने दूसरी पड़ोसन से कहा।
“हाँ….बहन बेचारी फुलिया, जब से आई है बियाह के, तब से माँ ही नहीं बन पाई। पूरे पाँच साल के बाद माँ बन रही है….तो भी बेवड़ा उसको एक बार भी यहाँ के अस्पताल में दिखाने नहीं ले गया। जबकि अस्पताल की दीदी पूरे गाँव में घूमती है। मैने देखा था फुलिया से मिलते हुए….तभी बेवड़े ने उसे धक्के मारकर अपनी झोपड़ी से बाहर निकाल दिया। परन्तु अब तो उसे अस्पताल ले जाता। मुझे तो उसकी चीखें सुनी नहीं जाती। ये तो फुलिया ही है जो ऐसे बेवड़े के साथ निभा रही है। भगवान….ऐसा बेवड़ा पति किसी को न दें”- शान्ति की माँ अपने कानों पर हाथ रखते हुए।
शाम ढल चूकि थी। फुलिया की चीखें भी शान्ति में तबदील हो गई। चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ था। बेवड़े की नींद अचानक आधी रात को खुली-
“अरे ओ फुलिया …क्या हुआ रे….लड़का या लड़की…अरे कुछ बोलेगी,कि मुझे उठकर आना पड़ेगा देखने… धत् साली…कुछ बोलती ही नहीं है लगता है मुझे ही उठना पड़ेगा’।
बेवड़ा जैसे तैसे लड़खड़ाता हुआ फुलिया के पास पहुँचता है देखता है कि फुलिया का शरीर ठण्डा हो गया था। शरीर पर मक्खियां भिनभिना रही थी। आँखें पथरा गई थी। उसका बच्चा पेट में ही मर गया था। जोर-जोर से छाती पीट-पीट कर रोने लगा-
“क्यूँ फुलिया मुझ अभागे को छोड़ कर चली गईं, इतना भी न सोचा कि मुझे खाना कौन देगा। अब मेरा क्या होगा फुलिया “- बेवड़ा छाती पीटता हुआ कहा जा रहा था।
उसकी रोने की आवाज के साथ पास- पड़ोस के लोग व गाँव वाले इकट्ठे हो गए।
“क्या रे बेवड़ा…अब रो रहा है… अगर उसकी इतनी ही चिन्ता थी तो पहले ले जाता अस्पताल, जब वो दर्द से छटपटा रही थी, तब तो तुझे होश नहीं आया। ये भी नहीं कि हम ही लोगों को देखने देता। आज तेरी बीवी के साथ तेरा बच्चा भी बच जाता”- उस भीड़ में से एक पड़ोसन ने ताना मारते हुए।
“मुझे माफ कर दो…ये साली….कमीनी….दारू कुछ भी सोचने नहीं देती। इसके आगे मुझे कुछ भी सूझता ही नहीं। फुलिया मुझे बहुत समझाती थी कि तू ये दारू पीना छोड़ दे। ये बड़ी नाश्पीटी चीज होती है। बस अच्छी तरह से काम-धन्धे पर लग जा फिर देखना, तू एक दिन बड़ा बाबू बन जाएगा, जो आज गाँव वाले तेरी इज्जत नहीं करते वो तेरे को सलाम ठोकेंगे फिर सोच हम लोगों की इस गाँव में कितनी इज्जत बढ़ जाएगी। पर…मैं कहाँ उस समय उसकी बात समझने वाला था”- बेवड़ा रोते बिलखते कहा जा रहा था।
सभी गाँव वालों को उसकी बात पर विश्वास नहीं था,कि ये बेवड़ा कल तक दारू को अमृत बताने वाला आज साधु बनने की बात कर रहा है। खैर…समय की नजाकत व मान मर्यादा को ध्यान में रखकर गाँव वालों ने भी उसकी बातों में हाँ में हाँ मिलते हुए सहानुभूति दिखाने लगे। सुबह होते ही गाँव वालों ने कहा-
“अरे..बेवड़े…इसकी क्रियाकर्म की तैयारी कर, जाकर कफन तो ले आ…नहीं तो बहुत देरी हो जाएगी”।
“कहाँ से कफन लाऊँ… मेरे पास तो जहर खाने के लिए भी पैसे नहीं है”- बेवड़ा
“क्या…तेरे पास कफन के लिए भी पैसे नहीं है? तो मिट्टी कैसे उठाएगा”- गाँव का मुनीम आते हुए।
“नहीं माई-बाप…अब तो ऊपर वाला ही जाने कैसे इस अभागी की मिट्टी उठेगी…उठेगी भी या नहीं मालूम नहीं”- बेवड़े ने हाथ जोड़ते हुए उदास स्वर में।
वैसे तो मुनीम जी बेवड़े से बहुत ही खुन्दक खाते क्योंकि जब भी बेवड़े को काम पड़ने पर बुलाते तब वो किसी न किसी बहाने टाल देता। इस बात पर मुनीम जी को बहुत गुस्सा आता, किन्तु आज उसकी स्थिति पर गुस्सा नहीं….दया आ रही थी।
“ले बेवड़े मेरी तरफ से दो सौ रुपया ले और सुन…. ठाकुर साहब से भी जा कर माँग ले वो बड़े दयालु है तुझे कुछ न कुछ तो दे ही देंगे”- मुनीम जी ने कहा।
बेवड़ा खाली हाँ में सिर हिलाता है। मुनीम जी को क्रियाकर्म के लिए पैसे देते देख गाँव वालों को भी कुछ न कुछ देना पड़ा….कोई पचास रूपया…. तो कोई बीस- दस रुपया… जो ज्यादा सामर्थ्यवान थे वो सौ रुपया…. साथ ही कोई कपड़े,अनाज, तो कोई लकड़ी भी दे दिया। अब बेवड़े के पास अच्छा- खासा पैसा जमा हो गया था कि क्रियाकर्म व कफन के बाद भी बिना काम-धन्धा किए एक दो महीने अकेले का खर्चा चला ले। बेवड़ा मन ही मन बड़ा खुश हुआ जा रहा था कि
“क्या बेवकूफ बनाया गाँव वालों को… नहीं तो ये लोग, देने वाले थे रुपया। उल्टा मुझे खरी- खोटी और सुनाते अगर उनका सुनाने से जी न भरता तो मारने से भी बाज न आते। बच गया…चलो.…फुलिया मरी तो उसके मरणी के नाम से ही सही.. इतना रुपया तो इकठ्ठा हुआ। अब मैं अंग्रेजी दारू पिऊँगा, बड़ी तमन्ना थी पीने की, जब बड़े लोगों को पीते देखता”
इस गाँव की खासियत थी कि बाजार के नाम पर गिनकर दस दुकानें थी जो कि सभी गाँव वालों की जरूरतों का सारा सामान इन्हीं दुकानों पर मिल जाया करता इसलिए यहाँ का बाजार किसी को छोटा न लगता और इस खासियत के साथ गाँव की दूसरी खासियत थी कि गाँव व बाजार के बीच एक दारू का ठेका था जिसके चलते बाजार का ज्यादातर पैसा यहाँ खर्च हो जाता। सूरज सर पर चढ़ आया था। बेवड़ा बाजार से क्रियाकर्म का सामान व कफन लेने निकल पड़ा। जैसे ही दारू का ठेका आया सहसा उसके कदम ठिठक गये, ये सोचते हुए कि रुक कर देखना थोड़ी मना है। अब बेवड़े व मन का अंतर्द्वंद शुरू हो गया-
“अगर मैं थोड़ी सी चख लूँ तो क्या पता चलेगा गाँव वालों को….नहीं…नहीं…उन्हें पता चल गया तो मार ही डालेंगे, आखिरकार उनका पैसा है। पहले क्रियाकर्म का सामान व कफन ले लेता हूँ फिर जो पैसा बचेगा उससे दो घुट अंग्रेजी दारू पी लूँगा,सुनते हैं अंग्रेजी दारू पीने वालों के मुँह से बदबू नहीं आती। हाँ… ये ठीक है। लेकिन कदम थे कि आगे बढ़ने को तैयार न थे। ज्यूँ ही उसके कदम मयखाने की तरफ बढ़ने को हुए, कि उसे पाँच फुट की दूरी पर फुलिया की आत्मा दिखी। बार- बार अपनी आँखें मल- मलकर देख रहा था, तब भी फुलिया उसको दिख रही थी।सर पर हाथ रखते हुए बोला –
“मैंने तो आज पी नहीं फिर ये ससुरी मुझे क्यू दिख रही है। फुलिया तो मर गई फिर यहाँ….ओह….लगता है कल की दारू उतरी नहीं। अरे फुलिया तो इधर….मेरी तरफ ही आ रही है…बेवड़ा अपना भ्रम मानता हुआ जैसे ही ठेके की तरफ जाने लगा कि बीच में फुलिया की आत्मा आते हुए कहती है-
“देख तू ठेके की तरफ मत जाना। मैं तेरे हाथ जोड़ती हूँ तुने सारी जिंदगी मुझे कुछ नहीं दिया कम से कम आखरी समय में कफन तो दे दे। बस मेरी आखरी तमन्ना पूरी कर दे। मुझे अच्छी तरह से इस दुनिया से विदा कर दे”।
“अबे…चल हट…. बड़ी आई समझाने वाली। जिन्दा रहकर मुझे कौन सा रोक ली, जो मरने के बाद रोकेगी”- बेवड़ा हाथ झटकारते हुए।
“अगर तु गया तो जिन्दा उस चौखट से बाहर निकल नहीं पायेगा”- फुलिया की आत्मा कहते हुए गायब हो गई ।
एक बार तो बेवड़ा भी घबरा गया फिर तुरन्त ही सम्भलते हुए,जैसे किसी पूर्व निश्चित व्यवस्था से अन्दर चला गया ।काफी देर असमंजस में खड़े रहने के बाद धीरे से दुकानदार से कहा-
“भाई…एक छोटी बोतल अंग्रेजी वाली देना”
दुकानदार ऊपर से नीचे तक बेवड़े को ऐसे देखने लगा मानो उसकी दुकान खरीदने की बात कर लिया हो-
“अबे….तेरे पास इतने पैसे भी है। मालूम है पूरे तीन सौ अस्सी रुपये की आयेगी”।
“हाँ… है न”- बेवड़े ने कमर से रुपये निकालकर दिखाते हुए।
दुकानदार रुपया देखते ही बेवड़े के प्रति रवैया ही बदल गया-
“अरे ओ छोटू….साहब को बिरयानी, तली मछली पूछ ले”
‘हाँ… साहब आप क्या लोगे- बिरयानी, तली मछली, चिकन, कबाब….”- ठेके के छोटू ने पूछा।
बेवड़े ने कभी इतनी इज्जत पायी न थी। वो सच में अपने को साहब समझ बैठा। ये भी भूल गया कि ये पैसे उसके नहीं,फुलिया के है। बस फिर क्या था-
“एक काम कर एक-एक प्लेट सभी की ले आ”- बेवड़ा सच में अपने को साहब समझते हुए।
आखिर में अपने को साहब समझे भी क्यूँ न, अण्टी में रुपयों की गर्मी जो थी। बेवड़े ने कभी एक साथ इतने रुपये देखे न थे, अब तो जम कर खाया जा रहा था और ऊपर आसमान की तरफ देखकर फुलिया का शुक्रिया अदा किया जा रहा था साथ ही-
“वाह रे भगवान जीते जी तो किसी ने एक साड़ी न दी फुलिया को और मरने के बाद एक क्रियाकर्म के लिए इतने सारे रुपये। सच कहते है दुनिया वाले…भगवान देता है तो छाप्पड़ फाड़ कर देता है। लोग भी कितने बेवकूफ है मरने के बाद ब्राह्मणों को कई हजारों रुपया दे देते है। परलोक में मिलता है या नहीं ये किसको मालूम। जिसके पास है वो दें। मेरे पास देने को है ही क्या? अब क्रियाकर्म का सामान कैसे लूँ, मेरे पास तो केवल बीस रुपये ही बचे हैं उससे सस्ता सा कफन ले लूँगा। रात को किसको दिखता है कफन तो कफन लाश के साथ ही जल जाना है”।
शाम ढल चुकी थी-
बेवड़ा खा-पी कर पूरे सरूर में था। तब अपने आप पर गाना गाते हुए- “अरे साला मैं तो साहब बन गया, रे साहब बन के कैसे तन गया।“
जैसे ही बेवड़ा उठने लगा। छोटू की नजर अभी भी उसके बीस रुपये पर अटकी थी-
“अरे…बड़े साहब…बख्शीस दो ना”।
बेवड़ा पूरे सरूर पर था। उसको इतनी इज्जत से किसी ने न बोला था जो आज इस मयखाने में मिल रही थी। झट से वो बीस रुपये भी निकाल कर छोटू की तरफ उछाल दिया। देने का गौरव आनंद और उल्लास का अपने जीवन में पहली बार अनुभव कर रहा था। जैसे ही बेवड़ा चौखट पार करने को हुआ, वैसे ही उसका पैर फिसल गया। सर जाकर सीधे सड़क से टकराया और वो वही तड़पने लगा। धीरे- धीरे बेवड़े का शरीर शान्त होता जा रहा था। उसे सामने फुलिया खड़ी दिख रही थी मानो कह रही हो-
“मैं ने मना किया था न…”।
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