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रतन जैसे ही सुबह उठा…एक अजीब सा शोर था…उसने देखा कि पूरे गांव वाले एक ही दिशा की तरफ भागे चले जा रहे थे… रतन से रहा नहीं गया…उसने पूछ ही लिया-
“क्यूँ भईया…क्या हुआ…?”
क्या बताये भईया…गाँव के बाहर पेड़ से फिर कोई लटक गया”- गाँव के लोगों में से एक ने भागते हुए कहा।
रतन को समझ में आ गया कि आज फिर किसी किसान ने आत्महत्या कर ली। किसान आत्महत्या करते और नाम होता गाँव का …नेताओं को भी एक मसाला मिल जाता…अपनी पार्टी के लिए…इनका आना-जाना शुरू हो जाता… राजनैतिक हवाएं गरम हो जाती…भाषण पर भाषण शुरू हो जाते…किन्तु क्या सही मायने में …जिसके घर में ये घटना होती… उसे अपनी मौत का उचित मुआवजा मिल पाता…नहीं…सभी नेता-परेता… अपनी-अपनी रोटियाँ सेंकने में लग जाते और होता कुछ नहीं… ऊपर से इतने लोगों के आने- जाने के कारण सभी सामानों के दाम और बढ़ जाते जिसकी वजह से अब और भी लोग खरीदकर खाने में असमर्थ हो जाते। इस गाँव की ऐसी स्थिति हो जाती थी कि एक और का नम्बर आत्महत्या की लाइन में लग जाने को मजबूर हो जाता। यही वजह थी कि रतन इस तरह की घटनाओं से बहुत चिढ़ता था… परन्तु कर भी क्या सकता था?
इस साल फिर अभी तक बरसात न हुई थी… पूरा अषाढ़ सूखा-सूखा बीत गया किन्तु बारिश होने का नाम नहीं…वो खेत-खलियान, जहाँ अनाज की ढेरी लगी रहती थी, लोगों के चेहरों पर खुशियाँ झलकती थी… वहाँ आज भाग्य का रोना था। न ही वर्षा हुई और न ही अनाज हुआ। जेठ… अषाढ़ बीत गये किन्तु एक पानी की बूंद न गिरी। कुछ लोगों ने बारिश की आस में किसी तरह पानी की व्यवस्था कर उधार-पेंचा ले, अपनी खेती बो ली…तो भी फसल तैयार करने के लिए बारिश की जरूरत थी जो कि इसी आस में पड़ी-पड़ी सुख गई। अनाज नहीं… चारा नहीं… अब गाय, भैंस, बकरी, घोड़ा आदि जानवर…खाये तो क्या खाये? क्योंकि इस बार गोचर भूमि में घास भी न जमी। ऐसा नहीं था कि बारिश का मौसम न होता बल्कि बादल-घटाएं उमड़-उमड़ कर आते…ऐसा मालूम पड़ता कि घनघोर बारिश होगी किन्तु सोचना… देखना…, खुश होना सब बेकार…।
किसानों ने अपने स्तर पर बहुत कुछ किया… पूजा-पाठ, जप-तप, मन्दिर-देवड़ा…यहाँ तक कि बलि भी दी गई लेकिन नतीजा… कुछ नहीं…क्योंकि इंद्र देव थे कि पसीजने को तैयार न थे। पानी न होने के कारण जिधर देखो उधर ही धूल उड़ रही थी।इस समय भूख- प्यास की तड़प क्या होती है वो गाँव वालों से ज्यादा कौन जान सकेगा… जो पल-पल अपने बच्चों को भूख से तड़पते- बिलखते देख रहे थे। यही सब देखते-देखते कुछ और दिन बीत गए…इस उमीद में कि कही से देवता कोई नेता के रूप में आयेंगे और सारे दुःख हर लेंगे। लेकिन…इन्तजार…इन्तजार… बस इन्तजार…आखिरकार इस इन्तजार से थक-हार कर पहले कुछ लोगों ने अपने गहने गिरवी रखे… कुछ ने जमीन…कुछ ने बर्तन-भांडे …कुछ ने जानवर…तो कुछ ने कुछ…। जब इससे भी पेट न भरा तो उन्होंने गिरवी रखें सामानों को बेच डाला। अर्थात जिसकी जैसी जरूरत थी वो वैसा ही करते गए परन्तु उनकी तरफ मदद के लिए कोई हाथ न बढ़े और अगर थोड़ा बहुत बढ़े भी तो वो ऊँट के मुँह में जीरा वाली बात थी। नेताओं ने भी अपनी तरफ से लम्बे चौड़े वादे कर डाले परन्तु असलियत में सब टाँय-टाँय फिश। रतन इस तरह की स्थिति अपने जीवन में एक-दो बार और भी देख चुका था… उस समय भी कुछ नहीं हुआ तो आज क्या होता…यही सब जान…रतन ये जानता था कि अब जो भी कुछ करना था…वो गाँव वालों को खुद करना था। गाँव में तो नेताओं का आना-जाना…भाषण बाजी सब दो दिनों का मेला था। उसके बाद की खामोशी बहुत भयावह होती है क्योंकि भाषण बाजी से पेट नहीं भरता… पेट भरने के लिए रोटी… रोटी के लिए अनाज और अनाज… इस बार हुआ ही नहीं… ऐसी स्थिति में गाँव के लोग अपनी भूख की पीड़ा को छोड़ बच्चों की भूख की पीड़ा देख… उनके लिए असहनीय हो गई।
अब जीविका का अन्य कोई सहारा न रहा। इसलिए सरकार ने भी अकाल पीड़ितों की सहायता के लिए जगह- जगह काम खुलवा दिए। जिस वजह से जन्म भूमि पर जान देने वाले किसान अपने बाल बच्चों को लेकर मजदूरी करने निकल पड़े। बहुतों को काम मिला तो बहुतों को नहीं…किन्तु जिनको काम मिला उनको पैसे बहुत कम मिलने के कारण जीविका चलाने के लिए उतने पैसे पर्याप्त न थे…बहुत खिंच-तान कर भी उन पैसों से वे एक वक्त की ही रोटी किसी तरह खा पा रहे थे । संध्या का समय था।
रतन मुँह पर मायूसी लिए हुए घर आया।
आते के साथ ही मुँह लटकाते हुए अपनी पत्नी से बोला- “लो…काम पर से इतने ही पैसे मिले हैं…”
“इतने कम…! इतने कम पैसों से तो केवल छोटू का पेट भर जाए वही बहुत है”- रतन की पत्नी ने कहा।
“तुम तो जानती ही हो इस देश का हाल…यहाँ अगर सरकार कुछ जनता के लिए करना भी चाहे तो कुछ नहीं कर सकती क्योंकि बीच के लोग मतलब सरकारी अधिकारी पूरा पैसा आने से पहले ही बीच से…आधे से ज्यादा पैसा गायब कर लेते है और रहा सहा कसर पहुँचने पर पूरी हो जाती है…फिर…तुम ही सोचो… जरूरत वालों के पास कितना पहुँच पाएगा…”- रतन एक लम्बी साँस छोड़ते हुए।
“आप ठीक कहते हो… लेकिन आप ने भी तो दो दिन से कुछ नहीं खाया है… खाओगे नहीं तो काम कैसे करोगे..”- रतन की पत्नी ने रुंधे गले से कहा।
“अरे पगली… तू ने कौन सा खाया है.. देख अपना चेहरा…कितना पीला पड़ गया..”- रतन ने प्यार की थपकी पत्नी के गाल पर देते हुए।
पत्नी भाव विभोर हो उठी और दो प्यारे-प्यारे आँसू… मोती जैसे टपक पड़े।
इतने में ये सारी बातें छोटू लेटे- लेटे सुन रहा था। झटके से उठकर अपने माता-पिता के बीच बैठते हुए- “माँ… जब केवल मुझे ही खाना है तो… क्यूँ न उन पैसों से मिठाई खा लूँ…आज मजा आ जाएगा…”
ये बातें सुन…छोटू की मासूमियत देख… दोनों खिलखिला कर हँस पड़े।
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