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सेठ पन्नालाल ने , पाण्डे जी का मकान नीलामी पर चढ़ा दिया। जो मकान बीस लाख (20 लाख) का था वो दस लाख(10 लाख) में बिक गया और जो रही सही जायदाद थी वो भी नीलामी की भेंट चढ़ने जा रही थी। पाण्डे जी मायूसी से अपनी सारी जायदाद का यूँ बिकता देख फूट-फूटकर रोये जा रहे थे।
अपने उस दिन को कोस रहे थे, जिस दिन पहली बार सेठ पन्नालाल जी से व्यापार के लिए कलकत्ता में फोन के द्वारा कर्ज के रूप में आठ लाख (8 लाख) रुपया लिए थे। हुआ यूँ कि सेठ पन्नालाल जी व पाण्डे जी की गहरी दोस्ती थी। उन्हें मालूम था कि पाण्डे जी एक सज्जन पुरुष है। इनका व्यापार में भी तूती बोलती थी। साथ ही बड़े नेक दिल इंसान थे। उनका पूरा शहर सम्मान करता था। बस फिर क्या था?
वो जब कलकत्ता व्यापार के सिलसिले में गये हुए थे कि अचानक व्यापार में आठ लाख(8लाख)की जरूरत आन पड़ी। उस समय पाण्डे जी के लिए आठ लाख (8 लाख) कोई बड़ी रकम न थी ,सो उन्होंने एक महीने में ही चुकाने का सोचकर सेठ पन्नालाल जी से सूद पर उधार उठा लिया। उधर सेठ पन्नालाल जी भी जानते थे कि पाण्डे जी कलकत्ता में होने कारण मुझसे पैसा ले रहे हैं वरना इनके पास क्या कमी है। ये तो खुद मेरे जैसे दो- तीन पन्नालाल को खरीद लें। इसी सोच के साथ फौरन ही कर्जे के रूप में आठ लाख रुपये निकालकर दे दिये। ये तो समय का ऐसा चक्र चला कि कल का राजा, आज का रंक।
सच पूछा जाए तो पाण्डे जी को उनकी पत्नी का व्यवहार ले डूबा। पाण्डे जी बहुत ही दरियादिल इंसान थे। किसी का भी सुख दुःख हो तुरन्त सुनते ।अपने भरसक जो मदद बन पड़ती उससे भी कही पीछे न रहते। किन्तु उनकी पत्नी (मृदुला) का व्यवहार अपने नाम का उल्टा था। कोई भी दीन दुःखी आ जाए उसे अपने घर के दरवाजे पर टिकने न देती,धक्के मारकर बाहर निकलवा देती। उसे तनिक भी दया न आती, यदि पाण्डे जी देख लेते तो अपनी पत्नी से दया अर्चना करने लगते-
“भाग्यवान! देखो उसे मेरी जरूरत है, शायद उनकी दुआ की वजह से हमारे जीवन में सुख-शान्ति है”।
इतना कहते तब जाकर पाण्डे जी अपने को उनके दुःख में शामिल करते। पूरे शहर में पाण्डे जी का नाम थे। जब किसी को थोड़े रुपयों की जरूरत होती तो पाण्डे जी। किसी के यहाँ शादी,बच्चा आदि है तो पाण्डे जी और तो और जब किसी के बच्चे की तबीयत खराब होती तो पाण्डे जी क्योंकि लोगों को लगता था कि नेक इंसान का हाथ मेरे बच्चे के सर पर रखा जायेगा तो वो ठीक हो जायेगा ।ये तो पाण्डे जी की नेकी थी कि पूरा शहर पाण्डे जी को बहुत मानता था या यूँ कह ले कि इंसान बड़ा स्वार्थी होता है जब तक उनका स्वार्थ पूरा हो रहा है तब तक वो उसके लिए भगवान है।
पाण्डे जी का घर परिवार कोई बहुत लम्बा चौड़ा न था। उनके परिवार में पाण्डे जी के अलावा, उनकी पत्नी व् विधवा माँ थी।
एक दिन तो हद ही हो गई। इधर पाण्डे जी अपने काम के सिलसिले में कुछ दिनों के लिए बाहर क्या गए ,मृदुला की अपनी सास से अनबन गई। अनबन तो एक बहाना था। मृदुला जब से इस घर में बहु बनकर आई थी,तब से ही सास से चिढ़ती थी। बस फिर क्या था?मौका देखते हुए सास के पास जाकर कहती है-
“माँ जी…आप अपने रहने का कोई और ठिकाना ढूंढ़ लीजिये “-मृदुला ने सपाट शब्दों में कहा
“क्या कह रही हो बहू?”- विधवा माँ आश्चर्य से।
“जो आप ने सुना, हम लोगों को शान्ति से जीने दीजिए। आप अपने रहने का कहीं और ठिकाना देख लीजिए।”- मृदुला कठोर शब्दों में।
“बेटा… मैं कहाँ जाऊँगी इस उमर में? मेरा तो एक ही सहारा है”- माँ हाथ जोड़ते हुए।
“सहारा का क्या मतलब? सारी जिन्दगी क्या यूँ ही हम लोगों का खून पीती रहेंगी “- मृदुला ताने पर ताना मारी जा रही थी।
माँ ये सब सुनकर रोये जा रही थी,कि इतने में पाण्डे जी आ जाते हैं। बेटे का अच्छा मूड देखकर अपने आँसुओं को रोकने का भरसक कोशिश करती है किन्तु आँसू थे कि रुकने का नाम नहीं ले रहे थे। इतने में-
“क्या बात है माँ आप रो रहीं हैं?”- पाण्डे जी आश्चर्य से।
“कुछ नहीं बेटा..मेरा घर पर मन नहीं लगता, तुम्हारे बाबा की यहाँ पर बहुत याद आती है। पूरे घर में उनकी यादें बिखरी हुई है सोचती हूँ कि वृन्दावन चली जाऊँ”- माँ अपनी बहू की बात छुपाते हुए।
“माँ…आपको मृदुला ने तो कुछ नहीं कहा”- पाण्डे जी आशंका जताते हुए।
“नहीं बेटा… वो तो तुमसे भी ज्यादा मेरा ख्याल रखती है जैसे..तेरी नहीं उसकी माँ हूँ। जब उससे मैंने थोड़ी देर पहले बोली तो वो भी तेरी वाली ही बात बोल रही थी। परन्तु क्या करूँ? यहाँ जी नहीं लगता”- बेटे को आश्वस्त करते हुए।
किन्तु पाण्डे जी इतने बेवकूफ न थे। उन्हें समझ आ गया था कि हो न हो जरूर मृदुला ने ही माँ को खरी खोटी सुनाई होगी,नहीं तो माँ इस ढंग से जाने की जिद न करती। मृदुला को तो समझाना बेकार है। बेमतलब घर में कलह ही होगी। ठीक ही है कम से कम वहाँ सुख का निवाला तो खा पायेगी।
कुछ दिनों के बाद ही माँ की सारी व्यवस्था करके वृन्दावन में छोड़ आते हैं। अपने मातृ- ऋण को चुकाने के लिए अपनी मां के नाम पन्द्रह लाख (15 लाख) रुपये भी बैंक में जमा करके आ जाते हैं ताकि उसी के ब्याज से वो अपना भरण पोषण कर सके। किन्तु बहु के व्यवहार से माँ का ऐसा दिल टूटा कि कभी घर आने का नाम न लेती। बस फोन से कभी-कभार हाल पूछ लिया करती।
इधर माँ क्या गई जैसे घर की लक्ष्मी ही रूठ गई। पाण्डे जी को अचानक व्यापार में बहुत बड़ा घाटा लग गया। इधर जो माल बिका,उसका रुपया बकाया में पड़ा था। कई ग्राहक उनके इस घाटे का फायदा उठाकर उनके बकाये रुपये भी दबा लिए। कुछ न हाथ आया। अन्त में निराश होकर पाण्डे जी थक हार कर बैठ गए। कलकत्ते के आढ़तियों से जो माल मंगवाये थे, रुपये चुकाने की तिथि सिर पर आ पहुँची और यहाँ रुपया वसूल न हुआ । रात-भर वे इन्हीं चिंताओं में करवटें बदलते रहे। सोचने लगे जो लोगों ने मेरे साथ किया वो मैं कैसे दूसरों के साथ कर सकता हूँ इसलिए जो बैंकों में रुपये थे, उससे आढ़तियों के रुपये चुकाने लगें। किन्तु सेठ पन्नालाल जी का कर्ज अभी बाकी था। इसी सोच में पाण्डे जी का स्वास्थ्य भी बिगड़ने लगा।
यूँ ही समय बितता गया। न पाण्डे जी फिर से व्यापार में उठ पाये और न ही वो सेठ पन्नालाल जी का कर्ज चूका पाये । ऐसे ही करते – करते तीन- चार साल बीत गए। अब सेठ पन्नालाल जी का कर्ज आठ लाख(8लाख) से बढ़कर तेरह लाख साठ हजार (13 लाख 60 हजार) हो गया था। इतनी तेजी से सूद बढ़ रहा था कि पाण्डे जी की चिन्ता बढ़ती जा रही थी। उनके पास इस कर्ज को उतारने का एक ही उपाय था। वो ये कि-
“मृदुला …सेठ पन्नालाल जी बहुत ही सज्जन पुरुष हैं वो अपना कर्ज मुझसे इस परिस्थिति में नहीं मांगेंगे, पता नहीं मेरी परिस्थिति कब ठीक होगी? अब तुम ही बताओ, मेरा क्या फर्ज़ है?”- पाण्डे जी ने कहा।
“कर्ज कैसे चुकाएंगे? अपने पास इतने रुपये तो है ही नहीं”- मृदुला ने कहा।
“तुम ठीक कहती हो, किन्तु अभी भी हमारे पास कर्ज चुकाने के लिए एक रास्ता है.. ये मकान”- पाण्डे जी मायूसी के साथ मकान को निहारते हुए।
“आप जैसा अच्छा समझें”- मृदुला अपने पति की बात समझते ही हाँ में हाँ मिलते हुए ।
“ठीक है फिर कल ही सेठ पन्नालाल जी के पास चला जाता हूँ”- पाण्डे एक ठंडी सांस खींचकर कहते हुए।
अगले दिन पाण्डे जी जब सेठ पन्नालाल जी के पास अपना प्रस्ताव रखते हैं तो उनका मुँह खुला का खुला रह जाता है।
“ये आप क्या कह रहे हैं? मैं ऐसा आपके साथ हरगिज नहीं कर सकता”- सेठ पन्नालाल जी ने कहा
बहुत विनती करने पर आखिरकार सेठ पन्नालाल जी मान जाते हैं। कुछ दिनों में पाण्डे जी का मकान नीलामी पर चढ़ जाता है। उनकी सारी जायदाद बिकने के बाद कुल ग्यारह लाख रुपये हुए। फिर भी सेठ पन्नालाल जी का कर्ज दो लाख साठ हजार बाकी रह जाता है।
पाण्डे जी व् मृदुला नीलामी के अगले दिन सेठ पन्नालाल जी के पास जाते ही कहते हैं-
“आप मुझे कुछ समय और दे दीजिए। मैं आपकी पाई – पाई चूका दूँगा”- पाण्डे जी शर्मिन्दा होते हुए उनके पैरों की तरफ झुक जाते है।
“अरे पाण्डे जी..ये आप क्या कर रहे हैं? आपके तो सारे पैसे चूक गए”- सेठ पन्नालाल ने विनम्रता से बताते हुए।
“ये आप क्या कह रहे हैं? अभी तो आपका बाकी है, ऐसे कैसे हो सकता है?”-पाण्डे जी आश्चर्य से ।
“मैं सच कह रहा हूँ जिसने आपका मकान व सारी जायदाद खरीदी है वही आपका बाकी का कर्ज भी चूका दिया”-सेठ पन्नालाल जी कहते हैं।
“कौन है वो फरिश्ता? मुझे उनके दर्शन करने है”- पाण्डे जी आँखों में आँसू भरते हुए।
“कोई और नहीं पाण्डे जी, वो आपकी माता जी है”- सेठ पन्नालाल जी ,उनकी माता को अन्दर लाते हुए।
माँ को देखते ही, पाण्डे जी व् मृदुला उनके चरण पकड़ के फूट- फूट कर रोने लगे।
“ये कैसे हुआ?”- पाण्डे जी
सेठ पन्नालाल बताते है कि जब आप अपना प्रस्ताव मेरे पास लाये तो मेरा दिल नहीं मान रहा था कि एक नेक इंसान के साथ ऐसा करूँ। तभी मुझे आपकी माताजी का ख्याल आया,कि कम से कम उन्हें तो बता दूँ। बस ..फिर क्या था? उन्होंने मुझे कहा कि-
“सेठजी आप रुकिए मै आज की ही बस से आती हूँ”।
अगले दिन माताजी आकर अपना बैंक बैलेंस जो कि करीब तेरह लाख रुपये व दो सोने के कंगन लेकर आई और ये कहते हुए दिए कि मेरा बेटा बड़ा स्वाभिमानी व्यक्ति है उसके स्वाभिमान पर ज़रा भी ठेस न लगे।
आज भी मैं न बताता अगर आप लोग मेरे पास आये न होते”- सेठजी घर की चाभी देते हुए ।
अभी भी पाण्डे जी व मृदुला रोये जा रहे थे और माँ के चरण पकड़ कर-
“माँ जी मुझे माफ कर दीजिए। मै अज्ञानी हूँ, पापिनी हूँ। मुझे नहीं पता था कि माँ के चरणों में ही स्वर्ग होता है”- मृदुला कहते हुए रोयी जा रही थी।
आज उसे सच में अपने किए पर पछतावा हो रहा था। माँ का दिल बहुत बड़ा होता है उसने कहा- “कोई बात नहीं बेटा… सुबह का भूला, अगर शाम को आ जाए तो, उसको भूला नहीं कहते।” इसी के साथ माँ मृदुला को भी गले लगा लेती है।
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