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तवा नदी के एक छोर पर एक छोटा सा गाँव बसा हुआ था। जहाँ गाँव के लोग इस पार से उस पार जाने के लिए नाव का सहारा लेते। किन्तु तवा नदी कई बार बरसात में अपना ताण्डव दिखाती।
परन्तु इस गाँव व गाँव वालों को आँच भी न आती क्योंकि गाँव के सभी लोगों का विश्वास था कि इस गाँव के कुल देवता उनकी रक्षा करते हैं इसलिए इस गाँव में सुख..शान्ति…समृद्धि…और उत्साह कायम रहता। यहाँ के लोग इसी विश्वास के साथ जीते व मरते थे। यहाँ केवट(नाव चलाने वाला)को सभी लोग बूढ़े…जवान…बच्चे हरिया चाचा कह कर बुलाते यहाँ तक कि जमींदार भी अर्थात वो जगत हरिया चाचा थे| हरिया चाचा का एक मात्र परिवार था जो इस पार से उस पार पहुँचाने का काम करता। इसलिए अच्छी खासी कमाई हो जाती। पूरे गांव का एक मात्र केवट होने के कारण इससे कोई दुश्मनी भी मोल नहीं लेता। सोचते कि अगर इससे दुश्मनी ले ली तो कहीं बीच मझ धार में न डुबो दे। हरिया के परिवार में तीन पुत्र व पुत्रवधू…कई पोतें- पोतियां और एक पुत्री रौशनी थी। उसकी पत्नी… रौशनी को गोद में ही छोड़कर चल बसी थी। फिर सभी बच्चों का लालन-पालन… शादी- ब्याह…बच्चे …सब हरिया ने अपने नाव की कमाई से ही किया था। बस अब केवल रौशनी का गौना करना बाकी रह गया था। लेकिन ये सब देख उसके प्रशंसक थे…तो जलने वालों की कमी भी न थी। इसलिए अक्सर कहा गया है कि ‘लोग अपने दुःखों से ज्यादा दूसरों के सुख से दुःखी होते हैं’ ‘ यही बात हरिया के पड़ोसी शेखू के ऊपर बिलकुल सटीक बैठती थी। जो हर समय इसी ताक में रहता कि किसी तरह हरिया की साख गाँव में कम हो जाए। परन्तु ‘क्या कभी बिल्ली के छींकने से छींका भी टूटता है भला।
एक रात हरिया अपनी नाव को तट पर बांधा। अगले दिन देखता क्या है कि वहाँ उसकी व उसके बेटों की नाव थी ही नहीं… इधर उधर भाग- भाग कर देखा परन्तु दूर- दूर तक कहीं नहीं दिखी…शायद रात को नदी में तेज तूफान आया हो और सारी नाव बह गई हो… यही सोच हरिया वही सर पर हाथ रखकर बैठ गया और रोने लगा…उसके पास जितने भी पैसे थे उससे तो वो अभी- अभी अपनी बेटी के गौने के लिए गहने बनवाये थे। हरिया ने तो सोचा था कि किसी तरह अच्छे ढंग से बेटी का गौना हो जाए तो वो अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त हो जाए… परन्तु सोचा हुआ होता कब है। हरिया के पास नावें बनवाने के लिए एक भी पैसे न थे। लेकिन नाव तो बनवानी बहुत जरूरी हो गई थी उसी से उसके सारे परिवार का खर्च चलता साथ ही पूरे गांव की जरूरतों को पूरा करने के लिए इस पार से उस पार करना उनके नावों का ही सहारा था। अब हरिया करें तो क्या करें? फिर सोचा चलो चलकर जमींदार ठाकुर साहब से कुछ मदद मांगी जाए… यही विचार कर वो जमींदार के पास गया-
“सरकार… मैं बर्बाद हो गया…”
“क्या हुआ हरिया चाचा….”- जमींदार ने कहा
“क्या बताए सरकार… रात को नदी में तेज तूफान के कारण मेरे घर की सारी नावें डूब गई…बेटी का गौना करना है सो अलग…”- हरिया रोते हुए।
“हूँ… ये तो बहुत बुरा हुआ… क्या तुमने ठीक से नावें नहीं बांधी थी…जो सारी की सारी नावें बह गई…”- जमींदार ने कहा।
“सरकार ठीक से तो बांधी थी… अभी तो बरसात का समय भी न था कि इस तरह का कोई अंदेशा रहे…” हरिया ने थोड़ा रुक कर आगे कहा-
“सरकार कुछ पैसों का जुगाड़ हो जाता तो…”
“चिन्ता मत करो हरिया चाचा…तुम जा कर मुनीम जी से ले लो…और हाँ… हरिया चाचा जल्दी से जल्दी नाव तैयार करो… नहीं तो गाँव वालों को दिक्कत हो जाएगी…”- जमींदार ने पैसा देते हुए कहा।
“सरकार… आज ही से हाथ लगा देता हूँ…”- हरिया ने खुशी से कहा।
हरिया दिन रात एक कर अपनी व अपने बेटों की नावें तैयार करवाता है। इधर शेखू जब सुना कि हरिया चाचा के परिवार की सारी नावें डूब गई तो उसकी खुशी का ठिकाना न था लेकिन हरिया चाचा की नावें फिर से तैयार हो गई वो भी ठाकुर साहब की मेहरबानी से…सो उसे अच्छा न लगा।
शेखू को खलबली मच गई कि कैसे जमींदार को भड़काया जाए। तभी एक दिन उसे मौका मिल गया…हुआ यूँ कि सरकारी विभाग से कुछ अफसर… गाँव के विकास को देखने के लिए आये हुए थे। जब वो लोग हरिया की नाव पर बैठे तो शेखू भी बैठ गया…रास्ते भर हरिया से बहुत कुछ पूछने लगे। हरिया ने भी गाँव का अच्छा सोचते हुए दबी जुबान से अपने गाँव के विकास पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया और कहने लगा कि-
“कैसे होगा विकास बाबूजी…. ये गाँव एक तरफ पानी से व तीन तरफ चट्टानों से घिरा है फिर यहाँ सरकारी बाबू आते ही कहाँ है… मैं तो नहीं देखा आज तक क्योंकि हमारा परिवार ही इस नदी पर नाव चलाता है…”
“क्यों …हमारे सरकारी विभाग का लेखा जोखा तो यही बताता है कि इस गाँव के विकास के लिए हर साल लगातार जमींदार जी के पास पैसे आते रहते हैं वो कहाँ खर्च हुए…”- सरकारी अफसरों में से एक ने कहा।
“हमें तो नहीं मालूम बाबू… जमींदार जी ही जाने…”- हरिया नाव खेते- खेते कहा।
सरकारी विभाग वाले जमींदार जी के पास पहुँच कर सवाल जवाब करने लगे। फिर लिखित जवाब माँगा गया….किन्तु जमींदार कुछ जवाब दे न सके। कुछ समय का मोहलत दे कर चले गए। इतने में शेखू आ कर जमींदार को हरिया की बातें सुनाई…जमींदार जी खिसिया कर आग बबूला हो गए तुरन्त अपने मुनीम से बकाया कर्ज की बही मांगी।
संयोगवश हाल ही में हरिया ने अपनी नाव के साथ- साथ अपने बेटों की नावों के लिए कर्ज लिया था। हरिया को मालूम ही नहीं पड़ा कि उसने क्या गलत बोला है कि इधर सम्मन आ पहुँचा। दूसरे दिन पेशी की तारीख पड़ गई….हरिया को अपनी सफाई देने का अवसर ही न मिला। जमींदार के लठैत व गुंडे हरिया व उसके घर के आस पास मंडराने लगे। कचहरी इस गाँव से तीस किलोमीटर दूर… कच्ची सड़क…. जगह- जगह गड्ढे… वृद्धावस्था में इतनी दूर जाने की हिम्मत नहीं थी इसलिए एक तरफा फैसला सुना दिया गया। कुर्की का नोटिस पहुँचा… हरिया के हाथ- पाँव फूल गए। चुपचाप अपने घर के बाहर खटिया डाल कर बैठ गया और नदी की लहरों को देखते हुए अपने मन ही मन कहने लगा-
“क्या मेरे जीते जी घर की कुर्की हो जाएगी… इतने मेहनत की कमाई मेरी पानी में चली जाएगी। मेरा पूरा परिवार कहा जाएगा…बेटी का गौना कैसे होगा… कहीं लड़के वालों ने ये सुनकर छोड़ दिया तो…”- सोचते- सोचते फूट- फूट कर रोने लगा।
शाम को तीनों बेटे भी आ गए। जब हरिया ने अपनी परेशानी बताई तो-
“क्या जरूरत थी पिताजी आपको जमींदार से पैसे लेने की… बाद में सोचा जाता क्या करना है…”- बड़े बेटे ने बाप के ही ऊपर दोष डालते हुए कहा।
“क्यूँ… उस समय तो तुम ही कह रहे थे कि पिताजी… किसी तरह से इन्तजाम कीजिए…नहीं तो बाल बच्चे भूखों मर जाएंगे…”-हरिया ने अपने बेटे को आड़े हाथ लेते हुए।
“आप से तो बोलना ही बेकार है… आप की समस्या आप ही जाने…”- बड़े बेटे की बहू ने झटकते हुए।
इतने में मझले बेटे ने कहा-
“अब आप ही बताइए पिताजी… इतने पैसे एक साथ हम लोग कहाँ से लाएंगे…मेरे पास थोड़े बहुत है…अगर वो भी दे दूंगा तो मेरे बीवी- बच्चे क्या खायेंगे …मेरी बेटी भी तो है उसके लिए बचा कर रखूँगा कि नहीं…”- अपनी जान छुड़ाते हुए।
तभी बीच में छोटे बेटे ने तपाक से कहा-
“पिताजी छोड़िए इस गाँव को… क्या धरा है इस गाँव में…जहाँ जाएंगे वही कमा कर खाएंगे…”-अपना पिण्ड छुड़वाते हुए।
तीनों बेटा व बहुओं की विचित्र रूप से हल देख कर हरिया के आँखों में आँसू आ गया लेकिन किसी को कोई फर्क न पड़ा… दूर खड़ी बेटी अपने बाप की हालत देख रो रही थी। तीनों बेटे व उनका परिवार इस समस्या में उलझना नहीं चाहते थे इसलिए सभी एक- एक करके इस गाँव से चले गए…रह गए थे तो इस घर में केवल बाप व बेटी। धीरे-धीरे समय व्यतीत होता जा रहा था… हरिया की भूख प्यास सब मिट गई। हरिया ने इन आठ दिनों में एक वक़्त भी सकुन की रोटी न खाई थी…कुर्की होने में केवल दो दिन बच गए थे और हरिया को अभी तक कोई उपाय न सुझा…बार-बार कुल देवता को याद करता फिर रोता…फिर याद करता फिर रोता…बस यूँ ही सारा दिन बीत जाता।
एक रात अचानक रौशनी अपने पिता की खटिया के पास आई और बोली-
“पिताजी आप कहे तो एक बात बोलू… जिससे हमारी सारी समस्याएं खत्म हो जाएगी…”
“बोलो रौशनी… ये तुम्हारे हाथ में क्या है…?”- हरिया ने बड़े अनमने ढंग से कहा।
“पिताजी… ये मेरे गहने है…इसको गिरवी रखकर जमींदार के पैसे चुका दीजिए। जब कमाएंगे तब इन गहनों को छुड़वा लिया जाएगा… तब तक गौना रुकवा दो…”- रौशनी ने कहा।
“नहीं बेटा नहीं… मुझे इस पाप का भागीदार मत बनाओ… मैं ऊपर जाकर क्या मुंह दिखाऊंगा…अब क्या तुम्हारे गहने ही लेने रह गए थे…जो बची-खुची इज्जत है वो भी मिट्टी में मिल जाएगी…”- हरिया ने हाथ जोड़ते हुए कहा।
रौशनी ने अपने पिता को काफी समझाया… तब कहीं जा कर भारी मन से बेटी की बात मानी। अगले दिन गहनों की पोटली लेकर हरिया साहूकार के पास पहुँच कर किसी तरह गहनों की पोटली उनके सामने रखते हुए-
“सेठजी…ये गहने है मेरे…,गिरवी रख लीजिए…”
“क्यूँ हरिया चाचा… आजकल आपके बड़े चर्चे है… किसके गहने है चाचा…?”- साहूकार ने कहा।
“सेठजी… बेटा – बहु तो कननी काट गए…, आखिर बिटिया ही काम आई…उसी के गहने है…गौने के लिए बनवाया था…”- हरिया ठण्डी सांस छोड़ते हुए।
“हरिया चाचा… आप किसी प्रकार की चिन्ता मत करो…ये लो पैसा…पहले इन पैसों से आज की समस्या को हल करो… फिर जब आप के पास पैसे हो जाए तब दे देना… अगर इस बीच बेटी के गहनों की जरूरत पड़ जाए तो बेहिचक ले जाना…जैसी आप की बेटी वैसी मेरी बेटी…”- साहूकार हरिया को पैसे देते हुए।
हरिया के आँखों से झड़- झड़ आँसू टपकने लगे जैसे सामने साक्षात उसके कुल देवता खड़े हो।
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