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राधेश्याम जी एक रसिक मिजाज के व्यक्ति थे। इनका दूसरा विवाह होने जा रहा था। इनकी पहली पत्नी श्यामली बहुत ही खुश मिजाज थी किन्तु समय व भाग्य ने इसको मार डाला। जब श्यामली जीवित थी तो राधेश्याम जी बहुत कम ही घर पर रहते। अकसर अपना पूरा समय वो अपनी दुकान पर बिताते। हफ्ते के सातों दिन दुकान खोलते। सुबह ही भोजन करके निकल जाते फिर सीधे रात के दस- ग्यारह बजे तक आते और थक हार कर के सो जाते। जब कभी श्यामली अपने पति से कहती कि आज कहीं बाहर चलते हैं तो उस पर बिगड़ जाते कहते-
“तुम्हें तो केवल घूमने की पड़ी है जैसे कि मैं खाली बैठा हूँ। मुझे कोई काम धंधा नहीं है क्या…?”
श्यामली डर के मारे चुप हो जाती। यही सोचकर कि फिर मैं कुछ बोलूँगी तो ये गुस्सा करेंगे, इससे क्या फायदा.. इससे अच्छा है कि चुप ही रहो।
लगभग दो साल पहले की बात है कि एक दिन श्यामली सब्जी लेने बाजार गई। वहाँ जाने पर इसकी तबीयत अचानक बिगड़ गई… वहीं पर उल्टी आनी शुरू हो गई….शायद बदहज़मी हो गई हो… किसी तरह वो घर पर आकर डरते- डरते अपने पति को फोन कर के जल्दी आने का आग्रह किया। इतने में ही राधेश्याम जी चिल्लाने लगे-
“तुम औरतों को तो कोई काम धंधा है नहीं… बस बिना मतलब के परेशान करना होता है जैसे कि मैं यहाँ खाली बैठा हूँ….. तुम्ही बताओ क्या मेरे आने से तुम ठीक हो जाओगी…या…फिर मेरे पास बैठ जाने से ठीक हो जाओगी…श्यामली…आज के जमाने की औरतों को देखो…सारा काम बाहर का खुद करती हैं…” – कहते हुए फोन काट दिया।
श्यामली को बहुत दुःख हुआ। छड़-छड़ आँखों से आँसू बहने लगे। उसे इस तरह के जवाब की उमीद न थी किन्तु कुछ सालों से श्यामली देख रही थी कि राधेश्याम जी का व्यवहार उसके प्रति बदल सा गया था। प्रेम हीनता का भाव दिखने लगा था। श्यामली की खुद के घर में कद्र कम हो गई थी। उसे समझ में आने लगा था कि उसका पति अब उसे पहले जैसा प्यार नहीं करते लेकिन कभी- कभी उनकी उम्र को देखकर सब्र कर जाती यही सोच कर कि हो सकता है कि पचास साल पार करने से उनका व्यवहार चिड़चिड़ा हो गया हो। श्यामली का राधेश्याम जी से तीस सालों का वैवाहिक संबंध कोई कम न था।
श्यामली की उम्र चालीस साल के आसपास रही होगी फिर भी राधेश्याम जी की नजर श्यामली की तरफ से फिर चुकी थी। अब जो भी श्यामली करती अपने बनाव श्रृंगार में वो तुरन्त ही टोक देते कि .
“क्या बालों को रंगती हो? क्या इससे जवान दिखने लगोगी… अब तुम्हारे ऊपर होंठों पर लाली लगी अच्छी नहीं लगती जैसे- बूढ़ी घोड़ी लाल लगाम..”
श्यामली मन मसोस कर रह जाती और हाँ.. का हुंकारा भरते हुए अपने पति के सामने से हट जाती। ज्यों-ज्यों समय का चक्र भागता जा रहा था त्यों-त्यों श्यामली का तिरस्कार राधेश्याम जी की तरफ से बढ़ता ही जा रहा था। अपने प्रति इतनी घृणा व तिरस्कार देखकर श्यामली मन ही मन कुढ़ने लगी पर बोल कुछ न पाती… बोलती भी क्या..? लेकिन राधेश्याम जी का शौक अपने प्रति बड़ा ही निराला था… खुद पचास साल की उम्र पार कर चुके थे फिर भी अपने को बांका जवान से कम न समझते। अपने बालों में नियमानुसार रंगते… नित्य प्रति दिन शरीर मालिश करवाते…जिससे राधेश्याम जी के शरीर में चमक बनी रहती।
राधेश्याम जी का मन श्यामली की तरफ से एक दम से हट चुका था इसलिए वो अपने आप को दूसरों के सामने जवान बने रहने का दिखावा करते हुए जवानी का बखान किये बिना न रहते। जवानी बने रहने के खातिर पता नहीं कितनी तरह- तरह की गोलियां व वैध जी के नुस्खे आजमाते।
ये सभी क्रिया- प्रतिक्रिया देख- देख कर श्यामली का मन अक्सर अशान्त रहता। उसके न चाहने पर भी उसका घर के कामों में मन न लगता।
श्यामली अब अक्सर बीमार रहने लगी। परन्तु राधेश्याम जी के व्यवहार में श्यामली के प्रति तनिक भी परिवर्तन न आया था। इसी दौरान एक दिन श्यामली चल बसी…मरती नहीं तो क्या करती…? श्यामली अपने अन्दर ही घुटन को कैद जो किये जा रही थी।
राधेश्याम जी को बहुत दुःख हुआ। अच्छी तरह से उसका क्रिया कर्म किये। तेरह दिनों तक सारे रीति रिवाज के मुताबिक कार्य सम्पन्न करवाए। धीरे- धीरे सभी रिश्तेदार घर से विदा हो गए…अब रह गए अकेले घर में राधेश्याम जी….। इंसान की प्रवृति है कि जो सामने रहता है उसकी कद्र नहीं होती… जब वो चला जाता है तो उसकी कमी खलती है… वही हाल राधेश्याम जी का था। अब उन्हें पूरा घर सूना- सूना लगता….श्यामली के बिना घर जैसे काट खाने को दौड़ता… उनका न घर में… न दुकान में…. न रिश्तेदारों के पास मन लगता। कुछ समय पश्चात कुछ उनके शुभचिंतकों ने उनकी ऐसी हालत देख उन पर तरस खाकर उनका दूसरा विवाह करवाने की सोची। ईश्वर की दया से उनका विवाह भी तय हो गया। एक सुन्दर… सुशील व कमसिन से… जिसकी उम्र केवल बाईस साल थी। कुछ मित्रों ने इस बेमेल विवाह के लिए आपत्ति भी जताई किन्तु राधेश्याम जी के पैसे के आगे कुछ न चली। जैसा राधेश्याम जी चाहते थे ठीक वैसा ही हुआ। विवाह सम्पन्न हो गया।
सुहागरात को सुहाग सेज पर रूपा लजाई…संकुचाई सी बैठी अपने पति परमेश्वर का इंतजार कर रही थी लेकिन रूपा ने राधेश्याम जी को अभी तक देखा न था क्योंकि रूपा अनाथ होने के कारण वो अपने मामा- मामी के यहाँ पली बढ़ी थी। मामा- मामी अपना सर दर्द उतारने के लिए रूपा का विवाह राधेश्याम जी से पैसा लेकर बिना दिखाये सुनाये ही कर दी गई।
इधर राधेश्याम जी अपने भाग्य पर फूले नहीं समा रहे थे आखिर अपने भाग्य पर इतराये भी क्यों न… इस उम्र में इतनी सुन्दर… सुशील… कमसिन पत्नी जो मिल गई थी। परफ्यूम छिड़क कर राधेश्याम जी अपनी नई नवेली दुल्हन के पास जाने के लिए जैसे ही रूम का दरवाजा खोले… तुरन्त रूपा उठ कर उनके पैरो को छुने के लिए झुक गई। राधेश्याम जी तुरन्त रूपा को झुक कर उठाते हुए सीने से लगा लिए…. जैसे रूपा को करेन्ट लगा हो… झटके से अलग हटकर बोली-
“ये क्या कर रहे हैं पिताजी….”
“कौन… पिताजी… मैं …तुम्हारा राधे….’- राधेश्याम जी अचम्भे से।
“क्या …आप…?”-रूपा राधेश्याम जी को देख… आश्चर्य की कोई सीमा न थी।
रूपा के आँखों से टप- टप आँसू बहने लगे
“रूपा…. रूपा… तुम्हें क्या हुआ? मैं ने कुछ गलत बोला क्या…?”- राधेश्याम जी ने रूपा की ऐसी स्थिति देख… कभी रूपा को देखते तो कभी अपने आप को।
बातों- बातों में राधेश्याम जी को पता चला कि रूपा के मामा-मामी उससे सारी बातें छिपा कर उसका विवाह करवा दिये। राधेश्याम जी को तभी समझ में आया कि पूरे विवाह में इतना लम्बा घूंघट क्यों रखा गया था… नहीं तो आज के समय में इतना लम्बा घूंघट कौन रखता है। राधेश्याम जी धीरे से रूपा के पास आकर बैठते हुए-
“देखो रूपा अब हम लोगों का विवाह तो हो गया… इसमें मैं कुछ भी नहीं कर सकता… परन्तु … मैं तुम्हें वचन देता हूँ कि मैं तुम्हारी मर्जी के खिलाफ कुछ भी नहीं करूँगा। किन्तु हाँ… एक बात और… हम लोग समाज के सामने पति-पत्नी रहेंगे…लेकिन अकेले में एक अनजान रिश्तों में। ये घर आज भी तुम्हारा है और कल भी तुम्हारा ही रहेगा…. अगर तुम कभी मुझसे कुछ और भी चाहोगी तो वो भी मैं उस समय तुम्हें देने की कोशिश करूँगा…”
कहते- कहते राधेश्याम जी भारी कदमों के साथ रूम से बाहर जाते हुए।
राधेश्याम जी अपने इन पलों को बहुत सुन्दर ढंग से व्यतीत करना चाहते थे लेकिन इनके सपने… सपने ही रह गए।
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